Sunday, April 3, 2011

उजियारे से आँख चुराना


 
उसने पाया, जिसने जाना
जीवन है अनमोल ख़ज़ाना
 
ठहर ठहर कर ही दिखता है
लगा हुआ है आना-जाना

नदी किनारे मिल जाता है
कुछ यादों का ताना-बाना
 
 पलट पलट कर देखें कब तक
अच्छा है, आगे बढ़ जाना
 
पूछ-ताछ के बिना खिले जो
होता है सुन्दर अफसाना  
 
मेरा काम,  आवाज़ लगाना
उस पर है, आना ना आना 
 
अब जाकर छूटा है मुझसे
उजियारे से आँख चुराना
 
द्वार खोल कर रख छोड़ा है
जब भी चाहो, तुम आ जाना
 
धारा का तो खेल यही है
पत्थर को यूँ गढ़ते जाना 
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, ३ अप्रैल २०११   


 
 
 
 
 
 

 


 
 

 

4 comments:

Anupama Tripathi said...

उसने पाया, जिसने जानाजीवन है अनमोल ख़ज़ाना ठहर ठहर कर ही दिखता हैलगा हुआ है आना-जाना


gahare arth se bhari sunder rachna .

प्रवीण पाण्डेय said...

धारा का तो खेल यही है
पत्थर को यूँ गढ़ते जाना

निश्चय ही यूँ पत्थर गढ़ेंगे।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सुन्दर प्रस्तुति ...

Ashok Vyas said...

धन्यवाद अनुपमा जी, प्रवीण जी और संगीता जी

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