Monday, April 4, 2011

दूर कर नाराजगी सूरज की



कभी कभी कविता दर्द से आती है
पर अक्सर, कविता दर्द मिटाती है
परत दर परत जब हटती जाती है
एक शुद्ध कविता शेष रह जाती है 

 कहने वाले में
 अब तक
शेष है 'आस्था' शब्द के प्रति
मानवता के प्रति

इसीलिए मुझे
उसका कहना
अच्छा लगता है

लगता है उसके शब्द
दूर कर नाराजगी सूरज की
बुला ही लायेंगे उसे

ना जाने कबसे
उतरा ही नहीं है
बस्ती में उजाला    
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ अप्रैल २०११  


  

3 comments:

Anupama Tripathi said...

लगता है उसके शब्ददूर कर नाराजगी सूरज कीबुला ही लायेंगे उसे
ना जाने कबसेउतरा ही नहीं हैबस्ती में उजाला

सुबह होने को है -
आस का पंछी आसमान में उडाता दीख रहा है .....
सुंदर आशा पूर्ण अभिव्यक्ति.

प्रवीण पाण्डेय said...

कवि भी पहुँचे, रवि भी पहुँचे,
आज झोपड़े अँधियारे में।

Ashok Vyas said...

आनंद की बरसात छमाछम
भीग-भीग कर मगन हुए हम

धन्यवाद अनुपमाजी और प्रवीणजी

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