Tuesday, March 22, 2011

दो सिक्के


 
उसने दो सिक्के
देकर मेरे हाथ में
मुस्कुरा कर दे दिया आश्वासन
सारी दुनिया खरीद सकते हो इनसे तुम


उसी पेड़ के नीचे
बैठे बैठे
न जाने कैसे
एक क्षण में
हर लिया किसीने 
मेरा सब दारिद्र्य

दिखने को तो
नहीं दिखी कोइ दौलत
पर
समृद्धि का स्रोत बन
आनंद कोष लुटाने को
तत्पर था मैं
संसार के सबसे बड़े सम्राट की तरह

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ मार्च २०११   
           

3 comments:

daanish said...

समृद्धि का स्रोत बन
आनंद कोष लुटाने को
तत्पर था मैं
संसार के सबसे बड़े सम्राट की तरह

मन के प्रकाश से जो हासिल हो जाए
वही दौलत सब से बड़ी और उत्तम है ...
अस्पष्ट होते हुए भी
कुछ झलक रहा है शब्दों में .... !

प्रवीण पाण्डेय said...

सच कहा आपने, दारिद्र्य तो मन से आता है।

Ashok Vyas said...

Daanishji 'aspashtta' aur 'jhalak' dono, dekh paane ke liye aapko sadar naman
Srijan path par nity utsaah badhaate
praveenjee ka abhaar

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