Friday, March 18, 2011

सूक्ष्म कला


एक सधी हुई अधीरता सी है
या उत्साह है छलछलाता हुआ
बैठ कर 
दिन के इस किनारे
आतुर हूँ
सौंप देने
नया प्रेम गीत
समय की धडकनों को
कर्म रूप में ढाल कर

अपने समाधिस्थ मौन से
निकल कर
खिलता हुआ भास्कर
जुड़ कर मानस से
सिखा रहा है
कुछ न करते हुए
सब कुछ कर पाने की
सूक्ष्म कला


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, १८ मार्च २०११              

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

इस सूक्ष्मकला को किनारे से बैठे ताक रहे हैं।

Ashok Vyas said...

is kala ke paarkhee praveenjee ko naman

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...