Saturday, March 12, 2011

हमारी एक साझी पहचान है


ऐसा भी हो सकता है क्या
घर, गाड़ियाँ, दुकानें
सब के सब
अपनी गोदी में लेकर दौड़ पड़े
एक लहर

अब ऐसा भी क्या प्यार जताना 
कि
सब कुछ बिखर जाए
टूट जाए
बह जाए

गति
एकाएक
इतनी अधिक मात्रा में
भूल जाती है 
सम्मान
स्थिरता के सौंदर्य का


जीवन
जैसा हम जानते हैं
संतुलित रूप में 
चाहता है
गति और स्थिरता

क्या संतुलन सिखाने के लिए ही
हुई है सृष्टि
शब्द में संतुलन
भाव में संतुलन
खान-पान, रहन- सहन, भोग- त्याग में संतुलन
पर ऐसा क्यूं
कि प्रकृति स्वयं होकर असंतुलित
इस तरह तहस नहस कर देती है
वो सब 
जो कई कई पीढियां मिल कर बनाती हैं

क्या सबक ये है की
स्थाई कुछ भी नहीं है
और शायद ये भी कि
सब समस्याएँ साझी हैं हमारी
मिल जुल कर करना है सामना 
हर एक चुनौती का
चाहे जिस देश में हो
चाहे जिस भाषा को बोलने वाले
चाहे जिस धर्म को मानने वाले

हमारी एक साझी पहचान है की हम मनुष्य हैं
और 
कभी दुलार से
कभी प्रहार से
हमें 
मनुष्य होने का बोध करवाती है
एक शक्ति
जिससे हम हैं
और जो हमारी होते हुए भी
हमारी पकड़ से परे है हमेशा 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ मार्च २०११  

               

2 comments:

Anupama Tripathi said...

एक शक्ति
जिससे हम हैं
और जो हमारी होते हुए भी
हमारी पकड़ से परे है हमेशा


सुनामी के दर्द से भरी कविता -
इतनी बड़ी आपदा से मन व्यथित तो होता ही है |
yes certainly there are some situations beyond our control.
hum prabhu se sada kripalu rahane ki prarthana kar sakate hain bus.

प्रवीण पाण्डेय said...

प्रकृति की सीमाओं का तोड़ना देख संभवतः हम अपनी सीमायें तोड़ना बन्द कर दें।

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...