इस बार फिर
एक बूँद आंसू की
ढुलकते ढुलकते
हो गई लुप्त
समझ की किसी
सजी-धजी क्यारी में
और
एक बार फिर
सबके बीच
अद्रश्य अकेलेपन ने
भींच कर उससे
पूछ लिया
खोई हुई
आंसू की बूँद का पता
एक बार फिर
ठहाका लगाते हुए
अपनी ही हंसी में
परायापन सुनाई दे गया उसे
और तब
अपने मौन में
श्रद्धांजलि का नया दीप जला कर
उसने
भेजे संवेदना दूत
सात समंदर पार
अपनी भूमिका निभाने
नए सिरे से होते हुए तैयार
उसने फिर एक बार
कर लिया
समर्पण का श्रृंगार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मार्च १३, २०११
7 comments:
समर्पण का श्रृंगार इससे सुन्दर और क्या होगा…………बेहतरीन , लाजवाब अभिव्यक्ति।
कल के चर्चामंच पर आपकी रचना लगी है।
बहुत ही सुन्दर रचना, सहज से भाव मन के, शब्द पाते हुये।
समर्पण का श्रृंगार ...
सुन्दर अभिव्यक्ति !
अच्छी रचना , बधाई
बहुत सुन्दर भाव ..
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई।
vanadnaji, praveenji, vaaneeje, ajay ji,
sangeetaji aur Sharad Singhji
ko rasmay abhaar
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