परत एक नहीं
दो नहीं
तीन नहीं
अनगिनत परतें हैं
सत्य को हमसे छुपाती हुई भी
और
सत्य का स्पर्श हम तक पहुंचाती हुई भी
एक-एक परत हटाते हुए
नहीं देख पाते हम
नई परत का उभर आना
हमारा विरोधी खिलाड़ी
अधिक चतुर है हमसे
पर इस
रसमय खेल में
एक केंद्र बिंदु ऐसा भी है
जिसे छूकर
तत्काल लुप्त हो जाती सब परतें
सुलभ हो जाता
परम-चरम
अनिर्वचनीय सर्वोत्तम
इस बिंदु को छूने के लिए
उतार कर आडम्बर की परतें
मौन साध कर
धैर्य से करनी होती प्रतीक्षा
एक अनुग्रह किरण की
जो हमें अपने आलोक में नहलाती है
इस मर्म बिंदु से सहज संपर्क जगाती है
और सहसा कृपा के ऐसे सुनहरे क्षण में
सत्य से हमारी दूरी, पूरी तरह मिट जाती है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, ११ मार्च २०११
3 comments:
और सहसा कृपा के ऐसे सुनहरे क्षण में
सत्य से हमारी दूरी, पूरी तरह मिट जाती है
असीम प्रभु कृपा पाकर मन शांत हो जाता है .
बहुत सुंदर रचना -
सत्य के समीप ले जाती हुई .
पर कभी कभी तो एक परत उघाड़ने पर ही सत्य दिख जाता है।
anupamaji aur praveenjee ko naman ke saath dhanyawaad
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