मेरे पास इस पल
जितनी भी दौलत है
तुमसे ही आयी है
और तुम्हारे नाम करते हुए
ये बरखा की बूंदे
ये निर्मल मौन भोर का
ये कृतज्ञतापूर्ण उल्लास
और
आनंद का अमृतमय स्वाद
बढ़ रही है मेरी दौलत
कैसे व्यापारी हो तुम
एक बीज लेते हो
पूरा वृक्ष देते हो
ओ विराट व्यापारी
मुझे भी सिखला दो
ये 'देते रहने की समझदारी'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, २८ फरवरी २०११
2 comments:
वह तो लगातार देते रहने के बाद भी धनाड्य है।
बहुत सुन्दर..
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