कविता को नहीं
स्वयं को पकड़ता हूँ
किसी नए कोण से
पहुँचता हूँ अपने तक
किसी नए द्वार से
विस्मय का
एक रोशन सूराख
दिखलाता है
मेरे कुछ अनदेखे हिस्से मुझे
पहचान की एक नयी सीढ़ी पर
चढ़ कर पुलकित होता
और अपने किसी
मार्मिक हिस्से का स्पर्श कर
लौट आता
वहां
जहाँ से शुरू होती है
एक नए दिन के साथ
खुद का नया रिश्ता पकड़ने की यात्रा
भीतर दिखती है जो
एक झलक
अपनी अनंतता की
सुबह सुबह
शाम तक
विस्मृत हो जाती है अक्सर
यह एक चक्र सा
चलता है जो अनवरत
इसमें
विस्मृति का भी रचनात्मक योगदान है
तभी तो हर दिन
स्वयं को छू लेने के लिए
नए नए द्वार ढूंढता हूँ
और
बार बार अपने विस्तार के प्रति
आश्वस्त होता हूँ
इस आश्वस्ति को
न ख़रीदा जा सकता है
न बेचा जा सकता है
पर ये बहुमूल्य है उतनी
जितना बहुमूल्य है जीवन
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, २४ फरवरी 2011
1 comment:
यह आश्वस्ति ही जीवन है।
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