कुएं का मेंढक
टर्र-टर्र करता
माप लेता विस्तार
अपने संसार का
एक छलांग में
बेहतर है वो हमसे
इस अर्थ में
कि जानता है
जाने हुए संसार का पैमाना
हम तो
जितना जानते हैं
उतना भूल जाते हैं
हर दिन
नई तरह से
छलांग लगाते हैं
जहाँ से चलते हैं
वहां लौट आते हैं
फिर किसी दिन
प्रयास करने को
निरर्थक जान कर
जहाँ हैं
वहीं जम जाते हैं
इस तरह
अपने-अपने कुएं में
बीतते जाते हैं
बाहर तो
ना मेंढक निकलता है
ना हम निकल पाते हैं
पर इस अर्थ में
हम बेहतर हैं मेंढक से
कि जब जाग जाते हैं
हर सीमा को लाँघने की सामर्थ्य
का अनुग्रह पाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार १६ फरवरी २०११
1 comment:
अपना सामर्थ्य जानने की देर है और हम मेंढकीय मानसिकता से उबर जाते हैं।
Post a Comment