कितना अजीब है
अभी जब
मिला हूँ तुमसे
कर रहा हूँ
वैसी ही बातें
दिख रहा वैसा ही
कर रहे हैं बात जारी
हम वहीं से
पर इस बीच
अपने भीतर
पार कर आया हूँ
एक जंगल
एक तूफानी नदी
देख आया हूँ
पर्वत शिखर
और
उसके मौन की अंगुली थाम कर
ढूंढ पाया हूँ
एक असीम आकाश
अपने भीतर
कितना अजीब है
अपने को खोने और पाने के
गहरे अनुभव में
कोई हो नहीं पाता
साथ हमारे कभी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ फरवरी 2011
3 comments:
विचित्र है कभी स्वयं को जानने लगना, कभी स्वयं को खो देना।
bahut achcha likhe hai8n.
dhaywaad Mridulaji aur Praveenjee
Kavita apne ko jaanne kee yatra
ke chitra bhee hain aur gati bhee
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