Friday, February 4, 2011

अनंत का निवास

 
सचमुच मेरे पास
कुछ भी नया नहीं है
तुम्हें कहने को
और वो सब
जो कह चुका हूँ
दोहराते हुए
लगता है
झूठ कर सकता है
उसे भी 
मेरा यूँ कहना
ऐसे वक्त में
जब कि कुछ भी नहीं है
कहने को


जैसे शाम होते ही
घर के परदे लगाते रहे हैं हम
ताकि बाहर से गुजरता कोई अनजान
व्यक्ति 
झाँक कर खिड़की से देख ना ले
हम कैसे जीते हैं
कहाँ, क्या रखा है हमारे घर में

ऐसे ही
कभी कुछ कह कर
कभी कुछ ना कह कर पर्दा लगाते हैं हम
उस बात पर
जो छोड़ जाती है
'अनंत की अंगड़ाई' का एक चिन्ह
हमारे भीतर


छुपाना क्या ये है कि
कि मैं जो 'मुक्त' हुआ था 'एक क्षण'
तो सहेज क्यूं ना पाया
 'असीम सौन्दर्य का वह ऐश्वर्य'
या शायद ये कि
कुछ 'अतीन्द्रिय विलक्षण अनुभव'
जब उतरा मेरे भीतर
तुम ऐसे साथ ना थे मेरे 
जैसे अब हो
जब तुम्हारे साथ साथ
पर्दा हटा कर
देख रहा हूँ
वह चिन्ह, जिसे दिखाने 
हटाया था पर्दा
अब तो देख नहीं पा रहा मैं भी

 
पर सत्य के स्पर्श की
एक स्मृति सी जो है मुझमें 
चाहो तो कर लो
भरोसा मेरा
और हो लो आश्वस्त
मेरे हाथ की रेखाओं में
अनंत का निवास है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ फरवरी 2011


2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

भजन तो कभी भी दोहराये जा सकते हैं।

sunil purohit said...

अनुभव ऐसे किन्हीं के ही होते हैं ,
बांधने में जहाँ शब्द भी बौने होते हैं ,
अनुभव ये रचनाओं में गूँथे नहीं होते हैं ,
अनन्त से प्रसवित अनुभव अनन्त ही होते हैं |

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