बात तुम्हारी है
तुम्हे पहचानती है
पर तुम्हें छू लेने का
तरीका नहीं जानती है
खड़ी है दुर्ग के इस पार
ढूंढ रही है वो द्वार
जहाँ से हो सके उसका सत्कार
बात एक
कितनी सारी बातें बनाती है
और अपनी बनावट में
खुद ही छुप जाती है
फिर जब एक दिन
अपने मूल स्वरुप के साथ
तुम तक आने को तैयार हो जाती है
तुम्हें इधर-उधर की बातों से
फुर्सत नहीं मिल पाती है
और ये भी है कि
नींद में डूबी हुई आँखें
इस बात को देख ही नहीं पाती है
बात खड़ी है दुर्ग के इस पार
ना जाने नवद्वार वाले इस परिसर में
कब जाग हो पाती है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, ३ फरवरी २०११
3 comments:
एक बात से अनेक बात।
बात तुम्हारी है
तुम्हे पहचानती है
पर तुम्हें छू लेने का
तरीका नहीं जानती है..
सही कहा है..गहन अहसास से परिपूर्ण सुन्दर प्रस्तुति..
रात के अँधेरे में मार्तंड की प्रचंड ऊष्मा महसूस कर लेते हो,
दिन की चढ़ती धूप में चाँद की शीतलता का एहसास कर लेते हो,
कल तक करती थी बातें जो अपनी आपसे,
छू कर भीड़ से करअलग मूल से जोड़ देगी तुम्हें अब वो |
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