Tuesday, February 1, 2011

दूसरे सभागार में



मुक्ति अनिवार्यता है
और मिल भी सकती है 
तत्काल
पर
राजी नहीं हम
स्वयं को छोड़ देने के लिए


भक्ति, भाव से है
भाव-शक्ति से
मन के खेल रचा कर
सुख भोगने का 
नित्य नया नाटक करते
एक सभागार से
दूसरे सभागार में प्रवेश करते हम
अनदेखा करते हैं
सर्वव्यापी विस्तृत आकाश


सहजता और कृत्रिमता के बीच
समझ का पर्दा
कुछ इस तरह उभर आता है
कि जो 
असहज है वो सहज और
जो बनावटी है, वो 
सहज नजर आता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, १ फरवरी 2011

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सहजता और कृत्रिमता के बीच
समझ का पर्दा

इसकी खोज में सब जीवन डुबो देते हैं।

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