संवाद इस पर
निर्भर है कि
हम कौन सा गीत गाते हैं
प्रवाह बात का
बनाए रखने
हम कौन सा सुर अपनाते हैं
कभी हम
अपना सारा ध्यान बात पर नहीं
फ़ोन के बढ़ते बिल पर टिकाते हैं
और तब जब हम
बैंक की दृष्टि से तो
सम्पन्न हो जाते हैं
या तकनीकी विकास से
संपर्क शुल्क घाट जाते हैं
चलते चलते हम संशय के गलियारे से
कुछ परछाइयां बटोर लाते हैं
फिर ना उजला उजला कुछ कह पाते हैं
ना प्यार सुनाती नदी की कल कल सुन पाते हैं
ऐसा क्यूं होता है
जब हम एक अभाव से छुटकारा पाते हैं
दूसरे अभावों को पालने में लग जाते हैं?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ जनवरी 2011
2 comments:
सही कह रहे हैं अब इंसान स्वार्थी हो गया है।
बहुत सटीक अवलोकन।
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