सुबह सुबह
उसकी करूणाकिरण के स्पर्श ने
भर दिया है मुझे
आलोकित ऊष्मा से
कृतज्ञता के दीप नयनों में जगाये
प्रसन्नता के मंगल गीत धडकनों में सजाये
मैं
इस तरह निकल रहा हूँ
उसकी मनोरम डगर पर
कि
जैसे रुकना, चलना, तिरना, उड़ना
एक हो गये हैं सब
एकता के इस आनंद को कहने
अधर हिलाने में संकोच है
जिससे भी कहूँगा
वो 'दूसरा' हो जाएगा ना!
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ जनवरी २०११
1 comment:
मौन चिन्तन हो, बस।
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