Thursday, January 6, 2011

अपेक्षा चाहे जैसी हो

 
जाग्रत करता है 
एक उत्सव सा
भीतर एक सुन्दर अरुणोदय
इस शाश्वत सूर्य की किरणों का प्रसार
कब, कहाँ, कैसे होता है
इससे अनभिज्ञ
मैं बस नमन करता हूँ
इस अनंत वैभव को
अपनी संपूर्ण इयत्ता के साथ 
 
और 
इस प्रयास में 
कि इससे छिटक कर अलग ना हो जाऊं 
कई बार अवरूद्ध कर देता 
अपनी निर्मल गति 
 
अपेक्षा चाहे जैसी हो
असुरक्षा का कण मात्र बोध भी 
रोक देता है
मुक्ति के भाव का अविछिन्न फैलाव 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ जनवरी 2011

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

दिन के जीवन का प्रारम्भ।

स्वाति said...

achhe shabdo se paripurn kavita...

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...