Wednesday, December 29, 2010

अपार विस्तार हमारा


ना जाने क्यूं
कई बार हो जाता है ऐसा
कोई एक क्षण नहीं
कालातीत लिखता हूँ,
इस तरह
एक दृष्टि से
जो नहीं हूँ
शब्द में वही दिखता हूँ

 
२ 
सत्य बाधित नहीं

ना सम्बन्ध के समीकरण से
ना जीवन से, ना मरण से
 
सत्य यानि 
चिर मुक्ति का उजियारा,
सत्य यानि
स्वीकरण की शाश्वत धारा,
सत्य ले आता है
संकुचन से परे,
सतत अनावृत हो जाता 
अपार विस्तार हमारा 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, २९ दिसंबर 2010
 


2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

समेटता हूँ, नहीं तो उमड़ने लगता हूँ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

सत्य ले आता है
संकुचन से परे,
सतत अनावृत हो जाता
अपार विस्तार हमारा

बहुत सुन्दर ...

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