अपनी ज़मीन को छोड़ कर
तय कर लिया हमने सफ़र
ऐसा हुआ एक मोड़ पर
आधे इधर, आधे उधर
अपनी ज़मीन को छोड़ कर
हम आ गये उस मोद पर
बंटते गये हर बात में
आधे इधर, आधे उधर
दावतों का दौर हो
या मातमी मौसम वहां
हर बार यूँ लगता रहे
वो सब वहां और हम यहाँ
किस्सा अधूरी सांस का
किससे कहें, जाएँ इधर
अब जो भी है, ऐसा ही है
आधे इधर, आधे उधर
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जून ८, २००७ को लिखी
२० दिसंबर २०१० को लोकार्पित
1 comment:
बीच धार में यही प्रश्न आता है।
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