उद्विग्न मन
चिंता मगन
क्या सोचता
क्या खोजता
अब छोड़ कर
हलचल सकल
तू मूल का
पा ले पता
हर सांस में
हस प्यास में
जिसका समर्पण छा रहा
हर आस का
है प्राप्य जो
तू क्यूं उसे बिसरा रहा
अब व्योम में
हर रोम में
तू सुन उसे
जो अनसुना
है गीत जो
अमृतमयी
मन बस उसे ही
गुनगुना
मत कर यतन
बस तज स्वपन
बन कर निरंतर
प्रार्थना
जिसके बनाये
जग बना
बह प्रेम से
उसको मना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० नवम्बर २००८ को रचित
रविवार १९ दिसंबर २०१० को लोकार्पित
1 comment:
गुनगुनाने योग्य पंक्तियाँ।
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