तुम्हारे जाने के बाद
यह जो बच रहता है
एक निर्वात सा
इसे भरने
फिर फिर बुलाता हूँ
तुम्हारी पावन स्मृति
जाग्रत करने
शाश्वत प्रेम के स्पंदन
परतों के पीछे छुपे सत्य को छू लेने
कभी शब्दों के साथ
कभी मौन में
करती है जो यात्रा
मेरी चेतना
ना जाने क्यूं
लगता है
साक्षी हो तुम
मेरे इस अभ्यास के
पर यह
जो तुम्हारे साथ होने
और तुमसे परे होने का अंतर है
क्या इसे पूरी तरह पाट सकता है
श्रद्धा और समर्पण का सूक्ष्म सेतु?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ दिसंबर २०१०, बुधवार
2 comments:
निर्वात भरना भी हो तो सद्विचारों से ही भरे।
It's wonderful Ashokji I liked it. I love you because you remind me my Sadguru.
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