Saturday, December 11, 2010

तुम्हारी कृपा का आश्वासन









स्मृति में
यह जो
सुनहरा वलय है
निरंतर आश्वस्ति उंडेलता,
इसके केंद्र में ही नहीं
परिधि पर भी
तुम्हारी
स्नेहमयी, करूणावर्षक उपस्थिति
जाग्रत है
स्मृति में ही नहीं
चेतना की
संवाद सतह पर भी
घुला हुआ है
तुम्हारी कृपा का आश्वासन

तुम कैसे
इतना भरोसा देकर
उज्जीवित कर देते
मन प्राण सबके

सोच-सोच कर
लीन हो जाता
तुम्हारे बोध में

ओ शाश्वत!
निसंकोच माखन लुटाने
आ पहुँचते हो तुम तो
घर-द्वार तक
पर
हम ही तुम्हारी टोली में
ना मिल कर
खड़े रह जाते
दर्शक दीर्घा में

ये क्या है
जो रोकता है
तुम्हारे प्रवाह संग
एक मेक हो जाने से?

अशोक व्यास
शनिवार, ११ दिसंबर २०१०

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

माखनचोर तो दिल चुरा कर ले गया।

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