Tuesday, December 7, 2010

खेल में खेल

 
जैसे खेल के मैदान में
घुस आये कोई बैल
तब
खेल रोक कर
जुट जाते हैं सब
उसे निकालने में
और फिर 
खेल बिगाड़ने वाला ही
बन जाता है एक खेल
कभी कभी
अवांछित विचार
बिन बुलाये मेहमान से 
घुसपैठ करते हैं
मन के 
शांत उपवन में
छिन्न-भिन्न कर
नीरवता,
भर देते हैं
आवेशित कोलाहल
 
ऐसे में
एकजुट होकर
अनिर्वचनीय शांति का साम्राज्य
स्थापित करने
उसकी ओर देखना,
जिसको देखने से
मधुर रस देती है
खेल में खेल की
यह
समझ को उन्नत करती सीढियां 
-
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, ७ दिसंबर 2010

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

बहुत सुन्दर। आजकल तो खेल बिगाड़ने वाले ही मुख्य खेल का हिस्सा बन चुके हैं।

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