कुछ नहीं दिख रहा था
सब कुछ दीखते हुए
सारे शोर-गुल के बीच
गुम हो गयी थी
उसकी आह्ट
जाने पहचाने रास्ते पर
खोया खोया
मैं
विश्वास सूत्र के लिए
बोध की अँगुलियों से
टटोल रहा था
मन का आँगन
सहज होकर भी
सहजता से मिलता नहीं वह
कई बार
और इस तरह
सिखा देता है
पूरी तरह एकाग्र होने की कला
पूरी तरह
सजग होकर
धीरे धीरे
अब जब सुन पा रहा हूँ
उसकी आहट
खोली नहीं है
आँख अपनी
मैं भी
उसकी तरह खेल कर
जता रहा हूँ उसे
कि उसके आने का
मुझे कुछ पता नहीं है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ दिसंबर २०१०
1 comment:
आहट उसके आने की विधि भी निराली होगी।
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