Tuesday, November 30, 2010

क्या सभी के साथ होता है ऐसा



क्या सभी के साथ होता है ऐसा
हर दिन
नए सिरे से
पूछना स्वयं से अपना परिचय
और सजा कर 
अपने सामने उपस्थित
सब रंगों वाले भाव, 
निर्धारित कर प्राथमिकता
ढूंढना
सार अपने होने का


क्या सभी के साथ ऐसा होता है
कि कोई तिलिस्म सा टूटता है
किसी क्षण की कोख से
और
खोल कर दिखा देता है
कालातीत का
चिर आश्वस्त मुख


क्या सभी के साथ होता है ऐसा
कि सत्य का संकेत 
देने लगती है 
हर सांस
इस तरह
की बहुत सी
अपेक्षाओं के बंधन
क्षीण हो जाते
अपने आप
और लहराने लगता है
एक भाव
ऐसी मुक्ति का
जो पकड़ में नहीं आती


क्या सबके साथ होता है ऐसा
कि 
किसी एक पल
अकारण 
मन से फूटता है
निर्मल क्षमा का झरना
अपनत्व के उजियारे में
रोम रोम से
फैलने लगता है
प्रेम का प्रकाश

शायद होता है
सबके साथ 
ऐसा
कभी ना कभी
पर परियों के किस्से की तरह
वही इसे सच्चा मानते हैं
जो कहीं ना कहीं अपने आप को
बच्चा मानते हैं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, ३० नवम्बर २०१०

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सबको अपना सार स्वयं ही ढूढ़ना है।

सुंदर मौन की गाथा

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