Thursday, November 11, 2010

ये कविता कंप्यूटर के विरोध में नहीं





ठेले वाला
मेले में
पुकार पुकार कर
चाट के स्वाद की
घोषणा कर रहा हो जैसे

क्या हम भी
भीतर के सुन्दरतम की 
महिमा जोर- जोर से गाकर
लोगों को बताएं
या अपने- आप में मगन
मधुर मौन रस में घुलते जाएँ 
 
२ 
 
तब जब कंप्यूटर नहीं था 
चल तो रही थी दुनिया 
शायद गति कम थी
शायद सुविधाएँ कम थी
पहले पहले
बड़े आकार के कंप्यूटर ने 
दफ्तरों की शोभा बढाई 
थोड़ी बहुत उत्तेजना बढाई
 
अब कंप्यूटर के चमत्कार 
हमारी जेब, हमारे ब्रीफकेस में
हमसफ़र तो हैं ही 
घर में सबसे पसंदीदा स्थल भी बनते जा रहे हैं
 
कंप्यूटर हमारे लिए 
नित्य जाग्रत धूनी की तरह हैं
स्क्रीन खोलती है कितने आकाश 
इस अद्भुत यन्त्र ने
विस्तार के साथ साथ
सीमित भी कर दिया है हमें 
इस हद तक की
प्रेमी-प्रेमिका 
समुद्री तट पर पहुँच कर भी
ना समुद्र को देखते हैं
ना एक-दूसरे को,
अपने-अपने लैपटॉप को 
गोद में लिए
कहीं और की सैर करते हैं


ये कविता कंप्यूटर के विरोध में नहीं
बस एक चेतावनी है
कंप्यूटर अपने आप में
नहीं कर सकेगा हमारा विकास

कंप्यूटर धीरे धीरे
रिश्तों में प्रतिद्वंदिता तो ला ही रहा है
अपनी सम्भावनाओं के द्वारा 
आन्तरिक यात्रा को भी धुंधला रहा है
 
आतंरिक-विकास
 नित्य शांति,
और चिर-प्रसन्नता के लिए
अब भी हमें
वही रास्ता, वही विधि अपनानी होगी 
जो कभी ऋषि-मुनियों ने अपनाई
 
"शून्य" और "एक" का आधार लेकर 
विस्मित करने वाला कंप्यूटर
अगर हमसे संवाद करता 
तो शायद बता देता कि 
जो कुछ सामने है
उसमें 
'शून्य' भी है
और 'एक' भी है
 
पर जो कुछ सामने है
उसमें उलझ कर
ना हम 'शून्य' तक जा सकते हैं
ना 'एक' को पा सकते हैं
 
जो दिखाई देता है
उसके आधार तक जाए बिना 
नहीं पाया जा सकता सत्य को
 
यह बात 
कंप्यूटर से भी सीख पाने की पात्रता
वह ऋषि जगाता है
जो 
'आदि-अंत' से परे की
उपस्थिति में तन्मय हो जाता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ नवम्बर २०१०
 
 

 


1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

हर अपने मौलिक स्वरूप न भूल जायें इस कम्प्यूटरी जगत में।

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