वह सब
जो जाना हुआ है
उसका कोई एक हिस्सा भी
साथ नहीं रहता निरंतर
पर संगत करता है
चिंतन यात्रा में
ज्ञान का पचा हुआ एक
स्वर्णिम कण
और
सृष्टि के मर्म को
अपना सम्पूर्ण अर्पित कर
आनंद में थिरकता है जब जाग्रत मन
शुभ्र भावों का पुंज बना मैं
सबके लिए
मंगल कामनाएं भेजता हूँ
अपनी हर सांस के साथ
ना जाने कैसे
आश्वस्ति सी
कहीं गहरे पैंठ गयी है
ऋषि कृपा से
कि
मेरा कल्याण
सबके कल्याण से
अलग ना है
ना हो सकता है कभी
लो
इस सूक्ष्म, संवेदनात्मक दृष्टि से
दिखलाते हैं तपस्वी दृष्टा
मन का उन्नत उजियारा भी
हवा और धूप की तरह
साझा है सबका
ना कोई बड़ा
नो कोई छोटा
मानवता का गौरव
सबके लिए है
सबमें है
सबसे है
जय हो
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ नवम्बर २०१०
2 comments:
वाह क्या बात है ,बिल्कुल सटीक सवाल है
बहुत ख़ूब,
मन की विशालता प्रदर्शित करती मानवता की उत्कण्ठा।
Post a Comment