उत्सव सा यह
है जो भीतर
नई उमंगो का
यह निर्झर
सांस सांस से
मुखरित होती
जैसे कोई
दिव्य धरोहर
२
उजियारे का
करने स्वागत
मुझमें फिर
मुस्काया शाश्वत
जो जो
प्यार बढ़ाना चाहे
मैं उससे
होता हूँ सहमत
३
आज कामना
रूप नया लेकर आई है
लेन-देन से परे
समर्पण रुत छाई है
साफ़ दिखे है
अब संदेह नहीं है कोई
ज्योति संग भी
चले ज्योति की परछाई है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ नवम्बर २०१०
1 comment:
मन में मन की परछाईं हैं,
जीवन-नगरी अलसाई है।
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