(चित्र - ललित शाह ) |
जहाँ ऐसी अभिव्यक्ति हो
कि संवेदना पर हथोडा सा बजने लगे
वहां जाने से कतराता हूँ,
जहाँ मुखरित होकर ऐसा लगे
कि मैं अपने आपको
ज्वलनशील बारूद बनाता हूँ,
वहां मौन की शरण लेकर
सुरक्षित, समन्वित धरती पर
लौट आता हूँ
क्या करूँ इसका, कि अपनी इस आदत
के कारण कभी पलायनवादी
कभी कायर कहलाता हूँ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
1 comment:
अपने आप को दीवार में झोंक देना भी बुद्धिमानी नहीं है।
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