इस बार
कहीं से भी
ढूंढ कर लानी है
वह मणि
जिसकी चमक से
यह 'एकाकीपन' का श्राप धुल जाए
शपथ लेकर
नई नवेली ओस की बूँद की
किरणों के सागर में
साँसों का सार लेकर
उतरा वह
असीम का आव्हान कर
और
हो रहा विलीन
उसी चमक में
जिसे बिखेरती थी
सहज पावनता प्रसरित करती
एक मणि
विस्तृत मौन की मधुरिमा में
लहराया एक 'बोध'
भेद नहीं है
सर्वोत्तम को 'पाने' और 'स्व के खो जाने में'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
1 comment:
मणि तो मन में ही है।
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