Saturday, October 16, 2010

वो मुक्त ही रहते हैं हमेशा

 
कभी कभी
या शायद अक्सर
ऐसा लगता है
जो कुछ करता हूँ मैं
या जो कुछ होता है मुझसे
उसका प्रारंभ
उसकी लय
उसकी पूर्णता
स्वतंत्र है मुझसे

मैं करते हुए भी
करता नहीं
बनता हूँ माध्यम 
उसके होने का
जिसे होना है

 कर्म भी शायद 
कविता की तरह ही है

प्रस्फुटित होता है मुझसे 
अपनी स्वतंत्र गरिमा लिए
मेरे लिए तृप्ति का मधुर उपहार छोड़ता 
घोषित करता है
'मैं भी मुक्त हूँ हमेशा
कर्म से ही नहीं
  कर्म के फल से भी"
बाँध लेता है बस 
कर्तापने का भाव 
जो शायद छल है मेरा ही
तो क्या
जो निश्छल होते हैं 
वो मुक्त ही रहते हैं हमेशा?

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ अक्टूबर २०१०


2 comments:

Swarajya karun said...

एक दुविधापूर्ण मानसिकता की भावपूर्ण अभिव्यक्ति. लेकिन इसमें 'शायद' वाली बात नहीं है कि कर्म भी कविता की तरह ही है . मेरे विचार से ,वास्तव में 'कर्म' भी एक तरह की कविता है, जिसकी छाया दिल के कागज़ पर खामोश शब्दों की तरह उभरती रहती है.बहरहाल एक अच्छी कविता के लिए बधाई और विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .

प्रवीण पाण्डेय said...

निश्छलता ही मुक्ति लाती है सदा।

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