कभी कभी
या शायद अक्सर
ऐसा लगता है
जो कुछ करता हूँ मैं
या जो कुछ होता है मुझसे
उसका प्रारंभ
उसकी लय
उसकी पूर्णता
स्वतंत्र है मुझसे
मैं करते हुए भी
करता नहीं
बनता हूँ माध्यम
उसके होने का
जिसे होना है
कर्म भी शायद
कविता की तरह ही है
प्रस्फुटित होता है मुझसे
अपनी स्वतंत्र गरिमा लिए
मेरे लिए तृप्ति का मधुर उपहार छोड़ता
घोषित करता है
'मैं भी मुक्त हूँ हमेशा
कर्म से ही नहीं
कर्म के फल से भी"
बाँध लेता है बस
कर्तापने का भाव
जो शायद छल है मेरा ही
तो क्या
जो निश्छल होते हैं
वो मुक्त ही रहते हैं हमेशा?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ अक्टूबर २०१०
2 comments:
एक दुविधापूर्ण मानसिकता की भावपूर्ण अभिव्यक्ति. लेकिन इसमें 'शायद' वाली बात नहीं है कि कर्म भी कविता की तरह ही है . मेरे विचार से ,वास्तव में 'कर्म' भी एक तरह की कविता है, जिसकी छाया दिल के कागज़ पर खामोश शब्दों की तरह उभरती रहती है.बहरहाल एक अच्छी कविता के लिए बधाई और विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .
निश्छलता ही मुक्ति लाती है सदा।
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