दिन आकर खड़ा हो गया था द्वार पर
बिना कहे
कह रहा था
खोलो दरवाज़ा
गले मिलो मुझसे
दिन मुझसे कुछ लेता नहीं
देता ही है
मुझे अपना आप
नई नई तरह से
दिन उजला है
अवसरों से लबालब भरा है
कर रहा है प्रतीक्षा
एक आत्मीय आलिंगन की अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ अक्टूबर 2010
1 comment:
कर लें, हर आलिंगन में कुछ न कुछ मिलेगा ही।
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