शहर के उस हिस्से में
जहाँ रोशनी रहती है
अपने लिए
एक मकान लेने की ख्वाशिश
अब तक
उसकी जेब में
फड़फड़ाती है
सिकुडती जा रही हैं
अब जो दीवारें
उनके घेरे में
उस तक
खिलखिला कर धूप भी
नहीं आती है
आज
आँख मल कर
पहाडी मंदिर का झंडा देख
फिर उसने सोचा
कैसे तय होता है
कि किस्मत किसको
कौन सा झंडा थमाती है
आज फिर
नदी में डुबकी लगा कर
उसने सोचा
हट जायेगी कसमसाहट
पर
एक पपड़ी सी
अव्यक्त प्यास की
चेतना से और
चिपकती जाती है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ अक्टूबर २०१०
1 comment:
अव्यक्त सी यह न जीने देती है, न ही शान्त रहने देती है।
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