Friday, October 8, 2010

ना जाने क्या था

 
देर तक
बिसरा रहा
अपना दर्द, आक्रोश, असंतोष 
अनवरत लड़ाई में हार की तल्खी से दूर 
 
ठहर कर
देर तक
देखता रहा
रुके हुए पानी में
हवा की थपथपाहट से
हिलती हुई पत्तियां, आकाश
और किसी अनाम पंछी की उड़ान


ना जाने क्या था 
जो चुप्पी में
सब कुछ सुन्दर और समन्वित करता रहा 
अपने आप 
 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
८ अक्टूबर २०१० 

2 comments:

vandana gupta said...

बस उसी का पता तो नही चलता।

प्रवीण पाण्डेय said...

धीरे धीरे ढल जाता है आक्रोश का सूर्य।

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