देर तक
बिसरा रहा
अपना दर्द, आक्रोश, असंतोष
अनवरत लड़ाई में हार की तल्खी से दूर
देर तक
देखता रहा
रुके हुए पानी में
हवा की थपथपाहट से
हिलती हुई पत्तियां, आकाश
और किसी अनाम पंछी की उड़ान
ना जाने क्या था
जो चुप्पी में
सब कुछ सुन्दर और समन्वित करता रहा
अपने आप
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ अक्टूबर २०१०
2 comments:
बस उसी का पता तो नही चलता।
धीरे धीरे ढल जाता है आक्रोश का सूर्य।
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