वो सीढियां
जिन पर चढ़ कर
शिखर की ओर जाते
दिखाई देते लोग
ऊंचाई का स्वाद चखते
मुस्कुराते, आत्म-तुष्टि से हाथ हिलाते
अपने संतोष की पताका फहराते
कौन हैं ये लोग
जो इन अनदेखी सीढ़ियों पर चढ़ते जाते?
कहाँ हैं ये सीढियां
जिनके रास्ते सबको नज़र नहीं आते?
२
किस पर निर्भर है ये कि
हम कब, क्या, कितना देख पाते हैं?
कई बार अपनी सीमित दृष्टि को लेकर
हम बस खीझते और झल्लाते हैं
और अपने ही भीतर छुपा
उत्थान का द्वार देख नहीं पाते हैं
दनादन सीढियां चढ़ते लोग देख-देख
उपलब्धियों के लिए ललचाते रह जाते
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, ६ अक्टूबर २०१०
5 comments:
लिखना कमेंट्स के लिए
या
कमेंट्स लिखे पर
कभी कभी यूँ लगता है
जाने अनजाने
एक पारस्परिक निर्भरता का सम्बन्ध
बन जाता है दोनों में
कमेंट्स, ताली बजाने वाली
दूसरी हथेली
इस अद्रश्य हथेली
की प्रतीक्षा में
लौट कर ब्लॉग पर
कभी खिसियाहट, कभी मुस्कराहट
अनजान स्थल पर
अर्थपूर्ण उपस्थितियों की धमक
संवेदना को सुन्दर करती
अनायास ये कैसी
आत्मीयता झरती
जय हो
jo krmath nhi hote vo hi jane anjane apne bhitr chhipi taqt ko njrandaj krte hai our bad me siva pchhtane ke unke pas our kuchh nhi rh jata hai.
sochne vicharne ko badhy krti bhut hi sshkt our prbhavshali post ke liye dhnywaad .
उत्थान का द्वार कहीं बीच में ही छूट जाता है।
उत्थान का द्वार कहीं बीच में ही छूट जाता है।
दिल की गहराइयों से निकल कर आयी है आपकी कविता. गंभीर सवाल उठाया है आपने कि अनदेखी सीढ़ियों पर चढ़ते कौन हैं येलोग, जिनके रास्ते सबको नज़र नहीं आते. मेरे मन में भी एक सवाल उठा है-
जिंदगी गुजरती है हर पल ज़मीन पर ,
क्यों अपनी जड़ों से दूर आसमान होता है ?
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