' रुकना नहीं
चलते जाना'
बस इतना ही याद था उसे
जीवन के उस छोर पर
मिला था शायद संकेत यही
'पहुंचना कहाँ है'
ये ना सोचा था
ना पता था
और एक दिन
चलते चलते
जब अपने गंतव्य के बारे में
सुनिश्चित होने की जिद लेकर बैठ गया वो
तब
धीरे धीरे
ना जाने कैसे
मिट सा गया
रुकने और चलने का अंतर
रुके रुके भी
वो किसी आश्चर्यजनक ढंग से
निकल सकता था सबके आगे
और
चलते हुए
उस पर नहीं था अब दबाव
कहीं पहुँचने का
कुछ बन कर दिखाने का
पर उसे मालूम था
'ये भाव भी स्थाई नहीं है'
स्थाई शायद वो है
जो 'कड़ी' है
'रुकने' और 'चलने' के बीच
और
जिसका आधार लेकर
संभव हो पाता है
'रुक जाना' या 'चल पड़ना'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, १ अक्टूबर २०१०
7 comments:
sundar bhavavyakti, badhai
स्थाई शायद वो है
जो 'कड़ी' है
'रुकने' और 'चलने' के बीच
और
जिसका आधार लेकर
संभव हो पाता है
'रुक जाना' या 'चल पड़ना'
अशोक जी अच्छा लिखते हैं आप .....
रुकने' और 'चलने' के बीच की कड़ी क्या है वो तो आप ही जानते हैं .....
बहरहाल वो कड़ी बनी रहे और आप यूँ ही नज्में लिखते रहे दुआ है ......!!
स्थाई शायद वो है
जो 'कड़ी' है
'रुकने' और 'चलने' के बीच
और
जिसका आधार लेकर
संभव हो पाता है
'रुक जाना' या 'चल पड़ना'
बिल्कुल सही कहा ………………वो कडी ही जीवन है , वो ही आधार है……………बेहतरीन प्रस्तुति।
आया था
उस बात की ख़ुशी
मनाने
जो किसी को कह कर समझाई
नहीं जा सकती
और ये सोच कर उदास हो गया
कि
कैसी किस्मत है
इस ख़ुशी की
जो है इतनी सुन्दर
पर इसका परिचय किसी को
नहीं दिया जा सकता
इन दो आयामों के बीच डोलता जीवन।
bahot achcha likhe hain aap.
sunder vishleshan..........
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