Sunday, September 26, 2010

बदलाव की आशा


नहीं चलेगा
बैठे बैठे
किसी बदलाव की आशा करने का शगल
पसीना बहाओ 
अगर
चाहते हो समस्याओं का हल


खाना-पूर्ति 
ले आये भले
नदी के पार,
कभी नहीं
जानोगे
क्या है रफ़्तार?

गति का स्वाद चखने
चप्पू को तेज़-तेज़ चलाओ
अपने भीतर श्रद्धा नदी को
तन्मय होकर जगाओ



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
27 सितम्बर २०१०, रविवार 



6 comments:

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

श्रम की सत्ता और महत्ता को रेखांकित करती आपकी यह काव्यात्मक वाणी आपके व्यक्तित्त्व के पट भी खोल रही है। बधाई! यदि मुझे समय मिला तो मैं आपको अपनी लम्बी कविता ‘श्रम एव जयते’शीघ्र भेजूँगा...Meanwhile, hope you stay in touch. So be it!

प्रवीण पाण्डेय said...

मेहनत तो करनी ही पड़ेगी।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 28 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

http://charchamanch.blogspot.com/

वाणी गीत said...

खानापूर्ति से नहीं चलेगा काम ...
सत्य वचन ..!

निर्झर'नीर said...

नहीं चलेगा
बैठे बैठे
किसी बदलाव की आशा करने का शगल
पसीना बहाओ
अगर
चाहते हो समस्याओं का हल

आपने तो जीवन का सार ही कह दिया चंद शब्दों में

Udan Tashtari said...

बैठे बैठे तो नहीं चल पायेगा..उम्दा रचना..

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