Saturday, September 25, 2010

सृजनात्मकता का मूल स्वर



 
कुछ भी लिखने से पहले
सलेट को पोंछते थे

चाक और सलेट के
घर्षण से उत्पन्न
खुरदुरेपन के स्वर में भी
एक रचनात्मक माधुर्य था 

 एक दूसरे की
चेतना पर
कुछ नई इबारत लिखने का
प्रयास करते हम
 आज भी
रच तो सकते हैं कुछ सुन्दर, 
कुछ नया सा रूप सम्बन्ध का
 
ये खुरदुरापन 
'मित्र' शब्द तक भी
ले जा सकता है
पर
'आत्मीयता' नहीं
'हिंसा' और 'वैर' ही
उभर रहे हैं
इस साझी सामाजिक चेतना की
सलेट पर

क्यूं हम
पूर्वाग्रहों की कटुता
पोंछ नहीं पाते?
शंका और भय की छाया में
जो लिखते हैं
उसमें
सृजनात्मकता का मूल स्वर
निखर ही नहीं पाता


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ सितम्बर 2010

No comments:

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...