Tuesday, September 21, 2010

कविता के इस छोर पर से





उस दिन
फिर एक बार
छिड़ गयी बहस
मैंने किया था प्रस्ताव
अब दे रहा हूँ 'त्याग पत्र'
हो चुकी कविता
बस
और नहीं अब
 
उस दिन
ना जाने क्यूं
फिर सोचा मैंने
बंधन है 
कविता के इस छोर पर से
इसे उगते हुए देखना
और
साथ में थी
छटपटाहट
कविता नहीं
जीवन चाहिए
संवेदना का दर्पण चाहिए


सहसा
ना जाने कहाँ से
चला आया था
'सत्य का प्रश्न'
सत्य के साथ
स्वयं को अपनाने की चुनौती
और
तब कहीं कुछ पिघला
किसी किरण ने बताया
'छल को जीने
और
किसी एक फ्रेम में
बंध जाने की चाहत लेकर
कविता के अहाते तक
नहीं पहुंचा जा सकता'


कविता के लिए
निरावरण होना होता है
और
भय स्वयं को 
पूरी तरह अनावृत करने का
कविता की सतह को
छूकर
लौट जाने को उकसाता है
 
कविता पूर्णता की तलाश है
जो अनवरत है
ना जीवन से 'त्याग पत्र' दिया जा सकता है
ना 'कविता' से
क्योंकि
कविता को नकारना 
अपने आप को नकारना है
 
तो क्या मैं ही कविता हूँ
जिसे 
लिख रहा है कोई
मुझमें बैठ कर
हर दिन
हर पल
 
तो क्या
अनंत की लिखाई
पढने, समझने और गुनगुनाने का नाम ही
कविता है?


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२१ सितम्बर २०१०

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

जी हाँ, अनन्त तक ही।

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