सब कुछ
गहरे सन्नाटे में,
एक अदृश्य हाथ
अचानक
तोड़ देता है
आन्तरिक माधुर्य सृजित करता
सूक्ष्म तंतु,
चुप्पी में
उदासीनता का भंवर
जकड कर मुझे
आतुर है
लीलने उत्साह मेरा,
समर्थन और
प्रोत्साहन की प्यास,
आस-पास के
वातावरण में
नहीं पाती जब
प्राप्य अपना
ठहर का
थपथपाता हूँ
आत्म-वैभव का
समुन्दर,
जगा कर
अनाम क्षेत्र से
नयी लहर
उमंग की,
उज्जीवित होता
मैं अपनी
अनवरत आभा में
छू लेता
वह छोर मौन का
जिससे
सम्बंधित है
मेरा होना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ सितम्बर २०१० को लोकार्पित
गहरे सन्नाटे में,
एक अदृश्य हाथ
अचानक
तोड़ देता है
आन्तरिक माधुर्य सृजित करता
सूक्ष्म तंतु,
चुप्पी में
उदासीनता का भंवर
जकड कर मुझे
आतुर है
लीलने उत्साह मेरा,
समर्थन और
प्रोत्साहन की प्यास,
आस-पास के
वातावरण में
नहीं पाती जब
प्राप्य अपना
ठहर का
थपथपाता हूँ
आत्म-वैभव का
समुन्दर,
जगा कर
अनाम क्षेत्र से
नयी लहर
उमंग की,
उज्जीवित होता
मैं अपनी
अनवरत आभा में
छू लेता
वह छोर मौन का
जिससे
सम्बंधित है
मेरा होना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ सितम्बर २०१० को लोकार्पित
1 comment:
तब अनादि था,
अब अनन्त हूँ,
मन से फैला,
दिग-दिगन्त हूँ।
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