(चित्र ललित शाह ) |
जो कुछ मैं करता हूँ
या
जो कुछ होता है मेरे द्वारा
उसमें से
संतोष और आश्वस्ति का सतत सृजन
संभव है तभी
जब
हर बात अर्पित हो उसे
जो सर्वव्यापी है
वरना
सीमायें समझ की
किसी भी क्षण
अपेक्षा के असंतुलित समीकरण तक ले जाकर
व्यर्थ कर देती हैं
वह सब जो किया गया
और
लील लेती हैं उत्साह
कुछ नया करने का
और वो जीना जीना ही कहाँ है
अगर हम दिन पर दिन
संकोच में सिमट कर
कुढ़ते या झल्लाते हैं
मुक्ति कैसे संभव है
समर्पण के बिना
चिरमुक्त वही हैं
जो उसके हो जाते हैं
हम जब विराट से जुड़ कर
आगे कदम बढाते हैं
अनायास ही अपने विस्तार के
नए सोपान अपनाते हैं
और अपने रोम रोम में
उसके सामिप्य का बोध पाते हैं
जिससे कर्म पथ के कण कण से
आनंद के गीत फूट जाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ सितम्बर २०१०
No comments:
Post a Comment