बस
और थोडा सब्र
तसल्ली, ठहराव
धीरे धीरे मिटेगा ही
प्रलय का प्रभाव
२
आशा
अन्धकार को चीर कर
आज भी
देख लेती है
स्वर्णिम उजियारे की तस्वीर,
विस्मृत नहीं
मुक्ति की महिमा
चाहे पांवों में है ज़ंजीर
३
उसने
अंतिम शैय्या से
देखते हुए
रक्त-पात,
सुनते हुए
वेदना, क्रंदन
अघात दर आघात,
इस बार
फिर से दोहराया
डूबती साँसों में
छुपा वही एक गीत
तुम से साँसे हैं
पर तुम तो
साँसों से परे भी
अमिट हो मेरे मीत
हमारे
शाश्वत सम्बन्ध की
लाज बचाना
चाहे जैसे हो,
सत्य की विजय पताका
फहराना,
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ सितम्बर २०१०
1 comment:
प्रेरक।
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