Tuesday, September 7, 2010

एक चित्र ठहरा हुआ

बस थोड़ी देर
अपने आप में गुम
रोक कर लहरें
लम्बे दरख़्त के नीचे से 
देख देख शांत सागर को
सहसा
फिर से कहा उसने
खेलो, अपनी आकाँक्षाओं, अपनी भावनाओं, अपने सपनो से
सागर!
चुप्पी तुम्हारी
बढ़ा रही है
वेदना
पवन की, रेत की, पंछियों की, पत्तियों की
अब ना रुको 
गाओ वो गीत 
जो अर्थहीन लगे चाहे 
अर्थ से भर देता है
सब कुछ 
और जिस क्षण 
सागर ने अपनी सहजता में
पहले की तरह अट्टहास किया 
हहरा कर बह आई लहरें 
मुस्कुरा कर कदम बढ़ाये उसने
जैसे 
पुनर्जीवित हो गया हो
एक चित्र ठहरा हुआ 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
७ सितम्बर २०१० 

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

भावनायें तो जड़ को भी गति दे देती हैं।

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