दो कवितायेँ
खाली मंच
खाली सभागार
मौन की लय पर
सहसा
थिरकता मन
अपने एकांत के माधुर्य संग
करने लगा
झूम झूम कर नृत्य
उल्लास उमड़ा
स्वर लहरी समर्पण की
गहराई धीरे धीरे
एक से अनेक
हो गए किस क्षण
कब भरा सभागार
कब
छुपा छुपा होकर प्रकट
मनाने लगा अपने होने का उत्सव
पता ही ना चला
२
मैं संक्रमण काल में
रहता हूँ हमेशा
या
काल वहीं है
आता-जाता मैं हूँ
अपने सपनो, अपने सन्दर्भों के साथ
रचता हूँ
नए नए सम्बन्ध
स्थिति से
मनःस्थिति से
और
नूतनता के साथ
कभी इठलाता
कभी घबराता
जब किसी व्यूह में पकड़ा जाता
समय पर सब दोष लगा कर
काल की देहरी पर
मुक्ति द्वार ढूंढता
एक ऐसे अनाम स्थल तक आता
जहां
मैं और तुम का भेद मिट जाता
फिर से स्वीकार्य हो जाती
मेरी विविधता की यह अनवरत गाथा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ सितम्बर २०१०
2 comments:
बहुत सुन्दर पहली कविता।
बेह्द गहन रचनायें।
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