जो कुछ
मैं अपनाता हूँ
धीरे धीरे अपनी चमक खोने लगता है
मेरा ही सपना पूरा होते होते
लगता है मुझे ठगता है
क्या ऐसा नहीं हो सकता
मैं सिर्फ तुम्हे अपनाऊँ
तुम जो अक्षय आभा वाले हो
तुम, जिससे सूरज भी उजियारा पाता है
और जो कुछ अपनाया या
ठुकराया जाना है जीवन में
बस तुम अपनाओ या तुम ठुकराओ
जीवन यूँ भी दिया है तुमने
अब इसमें से मेरी 'छोटी सी मैं' को हटाओ
रुकती सी लगे है 'जीवन धारा'
अपनी मुस्कराहट से इसको गतिमान बनाओ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० अगस्त २०१०
2 comments:
मुस्कराहट पारस पत्थर है।
वाह! अतिसुन्दर ! अहमावादिता को छोड़ उस शास्वत के प्रति समर्पण को व्यक्त करती एक बहुत ही उम्दा और मुकम्मल रचना के लिए बधाई और साधुवाद आदरणीय अशोक जी. आपसे ऐसे कई रचनाओं की अपेक्ष है. आभार !!
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