Friday, August 20, 2010

तुम जो अक्षय आभा वाले हो


जो कुछ 
मैं अपनाता हूँ
धीरे धीरे अपनी चमक खोने लगता है
मेरा ही सपना पूरा होते होते
लगता है  मुझे ठगता है 

क्या ऐसा नहीं हो सकता
मैं सिर्फ तुम्हे अपनाऊँ
तुम जो अक्षय आभा वाले हो
तुम, जिससे सूरज भी उजियारा पाता है

और जो कुछ अपनाया या 
ठुकराया जाना है जीवन में
बस तुम अपनाओ या तुम ठुकराओ 
जीवन यूँ भी दिया है तुमने
अब इसमें से मेरी 'छोटी सी मैं' को हटाओ
 
रुकती सी लगे है 'जीवन धारा'
अपनी मुस्कराहट से इसको गतिमान बनाओ 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२० अगस्त २०१०

 
 


2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

मुस्कराहट पारस पत्थर है।

Narendra Vyas said...

वाह! अतिसुन्दर ! अहमावादिता को छोड़ उस शास्वत के प्रति समर्पण को व्यक्त करती एक बहुत ही उम्दा और मुकम्मल रचना के लिए बधाई और साधुवाद आदरणीय अशोक जी. आपसे ऐसे कई रचनाओं की अपेक्ष है. आभार !!

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