(चित्र- ललित शाह) |
वो सब
जो होता है हमारे साथ
हमारी सक्रिय भूमिका के बावजूद
उस सबके होने की योजना
क्या हमने ही बनाई होती है?
क्या हम सचमुच तय कर सकते हैं
जीवन में हमारे साथ क्या हो
और क्या ना हो
बात कमजोर या ताक़तवर इंसान की भी नहीं
बात है
जीवन के आश्चर्य की
कौन कब कहाँ मिले, कैसे बात करे
क्या बात करे
हम उसे क्या कहें
कहने- सुनने से क्या बात आगे तक बनी रह जाए
बात चाहे किसी गरीब किसान की हो
या बड़े देश के राष्ट्रपति की,
सब कुछ किसी मनुष्य के इख्तियार में नहीं है
फिर भी
योजना बनानी है, बनने-बनाने में जुट जाना है
इस तरह
अपनी अन्तर्निहित संभावनाओं का पता पाना है
कहीं ना कहीं
हमारी सफलताओं और असफलताओं से
हम मुक्ति के उस विस्मित क्षण तक आते हैं
जहाँ ये जान पाते हैं कि हम उतने ही नहीं हैं
जितना सीमित मान कर कभी हम
घबराते हैं या इतराते हैं
२
शायद इस असीम के कारण
हम अपने भीतर
सुन्दरता का एक हिस्सा
आनंद का एक कोना
माधुर्य की एक धारा
संवेदनशीलता का एक कतरा
सपने का एक अनदेखा संसार
हमेशा बचा हुआ पाते हैं
अजीब बात है
सहज सुलभ विस्तार की अनदेखी कर
हम सीमाओं से परे जाने को छटपटाते हैं
पर हर दिन अपने लिए एक नया घेरा बनाते हैं
जिसके लिए कर रहे हैं सारा 'व्यवहार'
उसी को अपने 'व्यवहार' से छुपाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, १६ अगस्त २०१०
2 comments:
nice
बड़ी सुन्दर
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