Tuesday, August 17, 2010

कर्म और सोच का अंतर





ऐसा क्यूं होता है
वह सब
जिसे हम कभी
फालतू मान लेते हैं
किसी एक क्षण में
बहुत महत्वपूर्ण हो जाता अचानक

किसी का पुराना पत्र
किसी चीज़ का बिल
किसी का मुस्कुराना
किसी शुभ समाचार का आना
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मान्यता की लहर
आवश्यकताओं से हाथ मिला कर 
अनुभूति की सतह पर
चुपचाप कुछ नया रचती है
दिन पर दिन
कुछ इस तरह 
कि
अपने आपसे परिचित बने रहने के लिए
हमें खुद को देखना होता है
बार बार

विस्मय है
किसी दिन, हम स्वयं को पहचानते हैं
और किसी दिन स्वयं के लिए नए हो जाते हैं
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और इस सबके बीच
एक वो नयापन भी है
जिसको हम
तपस्या कर-करके बुलाते हैं
पर हवा के खेल में
उस पर से भी नज़र हटाते हैं

हममें कई तरह के लोग हैं
एक वो
जो सिर्फ सोचते जाते हैं
एक वो
जो कर्म करते जाते हैं
और कुछ ऐसे भी हैं
जो कर्म और सोच का अंतर
मिटाते जाते हैं
सोच कर देखें
आप किस श्रेणी में
आते हैं ?

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, १७ अगस्त २०१

2 comments:

vandana gupta said...

वाह्…………बेहद सुन्दर बात कही है।

प्रवीण पाण्डेय said...

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