Sunday, August 15, 2010

खुद को छोड़ने की कला


                                                                           (चित्र- ललित शाह)


यहाँ और कोई नहीं
मैं भी नहीं
बस एक अदृश्य उपस्थिति
जिससे प्रकट होते सारे दृश्य 
जिससे जुड़ कर
अर्थ पाती साँसों की श्रंखला

यहाँ और कोई नहीं
मैं भी नहीं
बस एक वह
जिससे मैं हूँ
जिससे मेरा होना 
महत्व पाता है
 
जिसको लेकर
जा सकता हूँ अपने से पार
उसे अपनाने 
खुद को छोड़ने की कला
जहाँ, जिस रूप में भी मिल जाए
आतुर हूँ सीख लेने को 

यहाँ
वह है 
जो सिखाता है
मिट कर भी
कैसे अमिट हुआ जाता है
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ अगस्त २०१०


                                      (चित्र- ललित शाह)

शिष्टाचार और मर्यादा
समाज के लिए हैं
पहाड़ो पर नाचती हवा के लिए नहीं
झरने की कल- कल के लिए नहीं

उगते सूरज की शायद मर्यादा है कोई
पर
किरण के स्पर्श से
रंग-बिरंगे पंख फैला कर
फूल के केंद्र पर
जा बैठती तितली
प्रदर्शन के पैमानों की
मोहताज़ नहीं

वह जो
बाहरी प्रभाव से परे
लीन है
सहज आत्म-प्रकटन में,
उसकी मस्ती 
तुम तक पहुंचा तो नहीं सकती 
पर उस मस्ती की झलक तुममें भी जगा सकती है कविता 

अशोक व्यास
१५ अगस्त २०१० 
न्यूयार्क, अमेरिका

2 comments:

vandana gupta said...

मै को मिटा दो और ये जान लो कि जो कुछ है सिर्फ़ वो ही वो है हर जगह , हर सोच, हर कण मे तो फिर उसके बाद खुद को खुद-ब-खुद भूल जाओगे……………खुद को भूलने की कला बेहद आसान है सिर्फ़ इतना ही तो करना है उसके अस्तित्व को स्वीकारना है जो बेहद कठिन काम है।

प्रवीण पाण्डेय said...

मिट कर भी
कैसे अमिट हुआ जाता है

बहुत गूढ भाव समेटे पंक्तियाँ।

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